
पूनम पाण्डे
कोसी (बिहार) से लौटकर
मुंबई में राज ठाकरे कई बार उत्तर भारतीयों पर निशाना साध चुके हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी कह चुकी हैं कि हर रोज हजारों बिहारी यहां आकर बोझ बढ़ा रहे हैं। बिहार से कितना माइग्रेशन हो रहा है इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा तो नहीं है लेकिन कोसी नदी के कहर को झेल रहे गांवों में से लगभग 80 पर्सेंट परिवारों में से महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को छोड़कर लगभग हर कोई बड़े शहरों में जाकर मजदूरी करने को विवश है। इनमें से ज्यादातर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और मुंबई का रुख करते हैं।
कोसी का कहर
कोसी को 'कैद' करने के लिए जो तटबंध बनाया गया वह समस्या दूर करने की बजाय दिक्कत बन गया है। तटबंध के बीच बसे गांवों के 8 लाख से अधिक लोग कभी भी जलसमाधि जैसी परिस्थितियों में जीने को विवश हैं ही, तटबंध के बाहर के गांव भी बेहाल हैं। सुपौल जिले के घिवाहा गांव में 2008 में पहली बार बाढ़ आई जब कुसहा में तटबंध टूटा। गांव के बुजुर्ग शालीग्राम कहते हैं कि जब कोसी में तटबंध नहीं था तब बाढ़ का रूप इतना विनाशकारी नहीं था, तब पानी फैल जाता था।
अब तो 40 किमी तक उपजाऊ जमीन बालूमय हो गई है। हम आजादी से पहली वाली स्थिति में पहुंच गए हैं। इसी तरह तटबंध के बीच बसे गांव सिहवार (जिला सहरसा) के लोगों का भी कहना है कि तटबंध के बाद कहर बढ़ा है। राजकुमार बताते हैं कि गांव से 80 पर्सेंट पलायन हुआ है। बाढ़ मुक्ति अभियान के कवींद्र पांडे ने बताया कि हमने मधुबनी के परसौनी और लीलजा, सुपौल के गोपालपुर गांव का सर्वे किया जहां 70-75 पर्सेंट परिवारों में से 1 से अधिक सदस्य रोजी रोटी कमाने बाहर गया है। कमोबेश यही स्थिति दूसरे गांवों की भी है। सबसे ज्यादा पंजाब और दिल्ली में माइग्रेशन हुआ है।
तटबंध कितना जरूरी?
पर्यावरण एक्सपर्ट दिनेश कुमार मिश्रा कहते हैं कि बाढ़ नियंत्रण पर किया गया खर्च फायदे की जगह नुकसान पहुंचा रहा है। मुक्त रूप से बहती हुई नदी की बाढ़ के पानी में काफी मात्रा में गाद (सिल्ट, बालू, पत्थर) मौजूद रहती है। बाढ़ के पानी के साथ यह गाद बड़े इलाके में फैलती है। नदियां इसी तरीके से भूमि का निर्माण करती हैं। तटबंध पानी का फैलाव रोकने के साथ-साथ गाद का फैलाव भी रोक देते हैं। इससे नदी का तल ऊपर उठना शुरू हो जाता है। रिवर बेड लगातार ऊपर उठते रहने की वजह से तटबंधों को ऊंचा करते रहना इंजीनियरों की मजबूरी बन जाती है मगर इसकी भी एक व्यावहारिक सीमा है। तटबंधों को जितना ऊंचा और मजबूत किया जाएगा सुरक्षित क्षेत्र में बाढ़ और जल जमाव का खतरा उतना ही ज्यादा बढ़ता है। और अब यही हो रहा है। तटबंध और ऊंचे किए जा रहे हैं और अब कहीं तटबंध टूटा तो स्थिति 2008 से भी भयावह हो सकती है।
बाढ़ नहीं... जल निकासी है समस्या
कोसी बाढ़ के लिए फैक्ट फाइंडिंग मिशन के मेंबर गोपाल कृष्ण कहते हैं कि कई शोधों से यह साफ है कि कोसी की समस्या बाढ़ की समस्या नहीं, जल निकासी की समस्या है। पहली यूपीए सरकार ने भी अपने मैनिफेस्टो में इसका जिक्र किया था। हालांकि फिर कुछ किया नहीं गया। कोसी में तटबंध बनाने की प्रक्रिया, बिहार के भीतर नदियों को जोड़ने की परियोजना और कोसी में हाई डैम बनाने का प्रोजेक्ट जल निकासी की समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि यह उसे और भी गहरा बना देंगे।
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/5687198.cms

(Kosi Barrage)

(Impact of August 2008 flood in Kosi)
क्यों नहीं बदलता बिहार
पूनम पांडे Tuesday March 23, 2010
यह मेरी बिहार की पहली ट्रिप थी। इससे पहले बिहार के बारे में सिर्फ सुना था या फिर खबरों में देखा था। पटना रेलवे स्टेशन से बाहर निकले तो लगा कि यार बिहार भी बड़े शहरों जैसा ही तो है। फिर जब बेगुसराय होते हुए सहरसा पहुंचे तो कुछ-कुछ असली बिहार दिखने लगा।
हमें बाढ़ प्रभावित लोगों से मिलना था। तटबंध (embankment) के अंदर बसे गांव और वे इलाके जहां कोसी नदी ने कहर ढाया है, वहां जब पहुंचे तो लगा कि मेट्रो सिटीज़ में रहकर तो हम इनका दर्द बिल्कुल भी नहीं समझ सकते। हर किसी के पास सुनाने के लिए कुछ न कुछ था। कैसे बाढ़ आई और कैसे कई रोज़ वे पानी में फंसे रहे। सरकार बाढ़ राहत कोष के नाम पर करोड़ों रुपया जुटाती है लेकिन क्या वह वाकई इन लोगों तक पहुंच पाता है? उनकी हालत देखकर तो यह कतई नहीं लगा। हर कोई आशा भरी निगाहों से हमें देख रहा था... कुछ ने तो पूछ भी लिया कि क्या आप कुछ बांटने आए हैं। ओह... कितना मजबूर महसूस किया उस वक्त खुद को!
इन लोगों की तकलीफ हम जैसे लोग शायद और बढ़ा देते हैं। इसका एहसास तब हुआ जब एक बुजुर्ग महिला को यह कहते सुना कि शहर के लोग आए हैं... देखने कि हम लोग कैसे जी रहे हैं। तटबंध के बाहर बसे एक गांव में जहां 1984 में बाढ़ आई थी, वहां अब भी हालात 26 साल पुराने ही हैं। बाढ़ से पहले वहां बिजली भी थी और सड़क भी पर बाढ़ जो बहा ले गई, वह फिर कभी नहीं मिला। अब बिना बिजली, बिना सड़क के रह रहे हैं गांववाले। कई नेता आए... कई गए पर वहां के हालात नहीं बदले।
नाव से नदी पार कर जब तटबंध के अंदर के गांवों में पहुंचे तो बच्चों ने घेर लिया। ये बच्चे भी हर साल मौत को करीब से देख चुके थे। न तटबंध के अंदर के गांव वाले खुश हैं न ही बाहर वाले। तो तटबंध का फायदा आखिर किसे हो रहा है? क्या ठेकेदारों को जो हर साल कहीं न कहीं से तटबंध टूट जाने के बाद फिर से उसे बनाने का ठेका लेते हैं....या फिर सरकारी अफसरों को जो बाढ़ राहत का पैसा गटक जाते हैं और गांववाले उसी हालत में रहने को विवश होते हैं... या फिर नेताओं को जो इन सब पर राजनीति करते हैं? एक गांव वाले ने बताया कि नीतीश कुमार बहुत अच्छे हैं... वजह पूछी तो बोला कि उन्होंने सबको एक क्विंटल अनाज दिलाया। वाह रे राजनीति और वाह रे नेता! बिहार ने कई बड़े नेता दिए हैं पर क्या फायदा? वे सब खजूर के पेड़ जैसे हैं जो न जरूरतमंद को छाया दे रहे हैं और न ही उनके फल तक कोई आसानी से पहुंच सकता है। आखिर इतने सालों बाद भी बिहार के हालात क्यों नहीं बदल रहे? कुछ लोगों का कहना था कि नीतीश सरकार के आने के बाद काफी-कुछ बदला है लेकिन जो बदलाव दिखा, वह सिर्फ पटना या फिर शहरी इलाके तक ही क्यों सीमित है? क्या कोई ऐसा नेता नहीं जो जलसमाधि जैसे हालात में जी रहे गांववालों की भी सुन सके...
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nonstop/entry/%E0%A4%95-%E0%A4%AF-%E0%A4%A8%E0%A4%B9-%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%A4-%E0%A4%AC
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